خوشا  راه ‌ِ سفر  فراروی ‌ِ تو  ͡است،
عزيمت ‌ِ خويش  را  به  نسيان  مسپار!

Le Silence de la mer

Le Silence de la mer
خاموشي‌ی ‌ِ دریا


Archives 

Send E-mail

Powered by Blogger

_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _
 

چهارشنبه، ۸  آذر ۱۳۸۱  (December 4, 2002) 

º  04:16

×

ایْ  باد!  نسيم ِ  يار  داری
ز  آن  نفخه‌ی ِ  مُشک‌بار  داری.
زنهار،  مکن  درازدستي!
با  طره‌ی ِ  او  چه  کار  داری؟
ایْ  گل!  تو  کجا  و  روی ِ  زيباش؟
که⁀او  مُشک ِ  تر  و  تو  خار  داری.
ريْحان!  تو  کجا  و  خط ِ  سبزش؟
او  تازه  و  تو  غبار  داری.
نرگس!  تو  کجا  و  چشم ِ  مست‌اش؟
او  سرخوش  و  تو  خُمار  داری.
ایْ  سروْ!  تو  با  قد ِ  بلندش
در  باغ  چه  اعتبار  داری؟
ایْ  عقل!  تو  با  وجود ِ  عشق‌اش
در  دست  چه  اختيار  داری؟
روزی  برسی  به  وصل،  حافظ
گر  طاقت ِ  انتظار  داری!

حافظ،  احمد ِ  شام‌لو،  ۴۴۵

P